Tuesday, February 22, 2011

ये शोर का शहर है।

ये शोर का शहर है।
कितनी तेज भाग रही है ज़िंदगी...
किसी तरफ तो ज़रूर जा रही होगी?
या शायद सिर्फ गोल घूमे जा रही है।

इस भागम भाग में पीछे छूट गया बेचारा सच।
अटल, अडिग और गहरा कहलाने वाला,
क्या अपने ही खूबियों का मारा है ये सच?
सच को ज्यादा ही भरोसा था खुद पे,
उसे भनक भी नहीं लगी और रंग बिरंगे
गुब्बारे नुमा झूठ ने उसे मात दे दी।
अब ये करे भी तो क्या बेचारा,
वो हवा भरे गुब्बारे फुर्र कर के उड़ गए...
ये टीका रहा, सिद्धांतों वाला जो ठहरा।

पर हम कैसे इन गुब्बारों से बहल गए?
माना ये रंगीन हैं, लेकिन अंदर से खोखले।
ये एक दिन सीकुड़ेंगे, हम रोते रह जाएंगे।
हमें थमना होगा, ज़रूरत पड़े तो पीछे मुड़ना होगा।
सच ने हमारा साथ खूब दिया।
अब उसे ज़रूरत है, तो हमें सहारा बनना होगा।

सच का साथ मत छोड़ ओ हमराही।
वो हमारा ही हिस्सा है, हम उसी के टुकड़े है।

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